राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में परिचर्चा और पुस्तक विमोचन।
नमस्कार!
महामाहिम श्री अरुण साहूजी, प्रो. सरोज शर्मा जी, प्रो. देवेंद्र शुक्ल जी, श्री ब्रजेन्द्र त्रिपाठी जी, श्रीमती दिव्या माथुर जी, प्रो. विनोद कुमार मिश्र जी, श्री शिव कुमार निगम जी, अन्य माननीय अतिथिगण, देवियों और सज्जनों। आप सबने मुझे इस सभा में अपनी बात कहने का अवसर दिया इसके लिए मैं आप सबका ह्रदय से आभारी हूँ।
हाई कमिश्नर साहू जी को मैं १९९० से जानता हूँ। हम दोनों जवाहर लाल नेहरू विश्वद्यालय के भाषा विज्ञान विभाग में स्नातकोत्तर पर्ढाई कर रहे थे। श्रद्धेय सीनियर, मितभाषी अरुण जी मुझसे एक वर्ष आगे थे। अरुण जी के और निकट आने का अवसर मुझे तब मिला जब हमारे विभाग ने प्रोफ़ेसर अन्विता अब्बी और प्रोफ़ेसर आर एस गुप्ता जी की अगुआई में भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची पर एक अन्तर्राष्ट्रीय गोष्ठी का आयोजन किया। ज्ञात हो, भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची का सम्बंध भारतीय भाषाओं से है। हमने महीनों इस पर बड़ी मशक्क्त से काम किया। बाद में १९९४ में अपने एम फ़िल शोध के काल में मुझे अमरीका आने का अवसर मिला और अरुण जी भारतीय विदेश सेवा में आ गए। दूरियों और समय का अंतराल बढ़ गया पर सम्पर्क और सम्बंध बना रहा। और फिर एक दिन अरुण जी ने मुझसे अपने अंग्रेज़ी कविताओं के अनुवाद करने की बात कही तो मैं मना नहीं कर सका।
भाषा और संस्कृति में एक अन्योनाश्रय सम्बंध है। भारतीय ज्ञान परम्परा में भाषा की महत्ता बहुत बड़ी है। यदि वेद हमारी ज्ञान परम्परा के स्रोत हैं तो छः वेदांग उस स्रोत के आधार स्तम्भ। उन छः वेदांगो में से तीन - शिक्षा phonetics, निरुक्त etymology, और व्याकरण grammar - का सीधा सम्बन्ध भाषा से है। हमारे ऋषियों, मुनियों का यह मानना रहा है की बिना भाषा के विश्व में किसी भी चीज़ की सत्ता नहीं है। हमारे यहाँ तो शब्द को ही ब्रह्मण कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार ब्रह्मण, जो सत् चित आनन्द स्वरूप है, इस ब्रह्माण्ड में रूप (form)और नाम (name) के साथ अवतरित होता है और जहाँ जहाँ तक रूप और नाम का विस्तार है, ब्रह्मण का विस्तार भी वहीं तक जाता है। महर्षि भर्तृहरि ने, जो कि पाँचवीं सदी के वैयाकरण, भाषावैज्ञानिक, और दार्शनिक थे, शब्दों के चार अवस्थाओं की परिकल्पना की है - वैखारी, मध्यमा, पश्यन्ति, और परा - जिसमे परा का अभिप्राय सत् चित आनन्द की अवस्था से भी परे तुरिया से है।
शब्दों (या भाषा) के नाश को एक प्रकार के दृष्टिहीनता की संज्ञा दी गयी है। मैं अपने आप को बड़ा भाग्यशाली समझता हूँ कि देश और माटी से इतनी दूर रहने के पश्चात भी हिंदी से मेरी निकटता में कोई कमी नहीं आई। चार वर्षों तक मुझे यूनिवर्सिटी ओफ़ इलिनॉ में हिंदी पढ़ाने का अवसर मिला। विश्वविद्यालय से निकलने के पश्चात में मैं निकटम मंदिरों के रविवासरिय विद्यालयों में कई वर्षों तक हिंदी और हिन्दू धर्म के पाठन का काम करता रहा। अगर यह कहूँ कि हिन्दी अब मेरी सिर्फ़ मातृभाषा न रह कर निज भाषा और स्वभाषा बन गयी है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
भाषावैज्ञानिकों का मानना है कि भाषा निरंतर अनुवाद का ही दूसरा नाम है। अपनी चेतना, अपनी स्मृति, और अपने अनुभवों को शब्दों में अभिव्यक्त करना अनुवाद का पहला चरण है।
भाषावैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि अनुवाद का प्रत्येक चरण मूलभूत से थोड़ा ही बहुत क्यों न हो, भिन्न अवश्य होता है। इसीलिए जब हम अपने ही अनुभवों को शब्दों का रूप देते हैं, तब तात्पर्य में कुछ न कुछ तो रह ही जाता है। जब पाठक और श्रोता हमारी अभिव्यक्तियों को सुनते या पढ़ते हैं तो वह अनुवाद का दूसरा चरण बनाता है। उदाहरण के तौर पर देखें तो अगर मैं अपनी अभिव्यक्ति में मेज़ का जिक्र करूँ तो प्रत्येक श्रोता अपने अनुभवों के आधार पर मेज़ का एक मानसिक प्रतिबिम्ब बना लेते हैं। पर अगर ध्यान से देखें तो प्रत्येक मेज़ के प्रतिबिम्ब में एकरूपता हो यह आवश्यक नहीं है। किसी की मेज़ काली तो किसी की पीली, कोई चार पैरों वाली होगी तो कोई छः पैरों वाली, और कोई गोल तो कोई चौकोर।
जब हम एक भाषा से किसी दूसरी भाषा में अनुवाद की बात करते हैं तो जटिलता और बढ़ जाती है - ख़ास तौर पर जब ये भाषाएँ असम्बद्ध हों। अरुण जी की कविताओं के अनुवाद का अनुभव मेरे लिए बड़ा ही आनन्ददायी था। अनुवाद की प्रकिया मैंने दो चरणों में पूरी की। सर्वप्रथम, मूल अंग्रेजी कविताओं का सीधा आधारभूत अनुवाद किया। दूसरे चरण में जहाँ जहाँ भी अवरोध खड़े हुए, या शब्दों के मायनों में अस्पष्टता या संदिग्धता दिखी तो अरुण जी के व्यक्तित्व को ध्यान में रखते हुए उनके सही मायने तक पहुँचने की प्रयास किया। उनको व्यक्तिगत रूप निकट से जानने से अनुवाद की प्रक्रिया थोड़ी सरल अवश्य हुई। फिर भी स्थानिक दूरी की वजह से इसके आगे के चरणों को निगम जी के हाथों सुपुर्द करना पड़ा। और जैसा कि अनुवाद के अंतिम सृजन से स्पष्ट है, निगम जी का सहयोग इसमें अद्वितीय रहा है।
अंत एक दो शब्द कविता संग्रह के कवर पर कह कर अपनी बात समाप्त करूंगा। संग्रह का कवर अत्यंत ही मनोहारी है। अगर इस कवर को भी कविता ही कहूँ तो अतिशयोक्ति न होगी। आप लोगों यह बात शायद न मालूम हो - जिस अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी की बात मैंने आगे कही थी उस सम्मलेन की पुस्तिका के कवर design का काम अरुण जी ने ही किया था.
एक बार पुन: आप सबका धन्यवाद और आभार।